रिश्तों को किसी मान्यता की आवश्यकता नही होती , वो तो दिल से दिल के होते हैं , फिर चाहे वो कोई भी रिश्ता क्यूँ न हो । आज मैं एक ऐसे ही रिश्ते की बात कर रही हूँ…..भाई – बहन के रिश्ते की ।रिश्तों में कुछ कहने सुनने की कोई जगह नही होती…..ये मैंने अपने पिता (जिन्हें समाज के आधार पर ससुर कहा जाता है) से सीखा । उनकी छोटी बहन के साथ उनके रिश्ते ने मेरा दिल हिला कर रख दिया था । आज उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर इस बहन – भाई की कहानी के माध्यम से मैं उस रिश्ते को श्रृद्धांजली अर्पित करती हूँ । लिखते हुए कई बार दिल रिस्ता रहा । कहानी केवल उनसे प्रेरित है , कुछ कल्पना तो कुछ असल है ।
साँझी
बुआ जी पचास – पचपन की होंगी शायद , उनके चेहरे से उनकी उम्र का अंदाज़ा होना मुश्किल था । उनकी छोटी मगर गहरी आँखों में इतनी गहराई थी कि उनमें अनकही , ख़ामोश ज़िंदगी दफ़्न सी लगती थी । होंठ फड़फड़ाते थे पर बोलती आँखें थी । अधपके लंबे बालों की खुली सी चोटी , गोरा रंग , लंबा कद , भारी शरीर पर बेतरतीबी से पहनी सूती धोती का लापरवाही से लटकता पल्लू । वो सारे गाँव की बुआ जी थीं । घर में किसी की क्या मज़ाल कि बुआ जी की बात टाल दे…..उनके रौब से नही बल्कि उनकी ख़ामोशी के कारण । कहते हैं कि बुआ जी की शादी दिल्ली के सीताराम बाज़ार में अच्छे खाते – पीते घर में हुई थी , लेकिन भाग्य में तो कुछ और ही लिखा था । छोटी उम्र में ही विधवा हो गईं।
फूफा जी के गुज़रने के बाद बुआ जी कुछ दिन ससुराल में ही रहीं लेकिन ससुराल वालों का व्यवहार बदल गया था । सबसे बड़ा कारण उसमें जायदाद को लेकर था , सीताराम बाज़ार की हवेली वालों को बुआ जी और उनकी बच्ची दुश्मन नज़र आने लगे । उन्हें पहले तो तानों से घायल किया गया लेकिन फिर भी बात न बनी तो हाथ उठाने लगे । एक दिन अचानक कर्नल साहब बहन से मिलने पहुँच गए तो आँख से सब देख लिया…..उन्होंने बहन का हाथ पकड़ा और बच्ची को गोद में उठाया , ससुराल वालों से कह दिया……..
अपनी हवेली अपने पास रखो……मेरी बहन यतीम नही……चाहूँ तो तुम्हें कोर्ट – कचहरी में खींच सकता हूँ…….लेकिन तुम जैसे लोगों से हमें कुछ नही चाहिए….भूल से भी इन दोनों की तरफ़ आँख उठा कर मत देखना ।
बुआ जी भाई का मुँह देखती रह गईं थीं । कर्नल साहब उन्हें घर ले आए , उनकी पत्नी ने भी बड़े प्यार और सम्मान से रखा , अंबा तो उनकी अपनी ही बेटी हो गई । चार बच्चों के साथ अब घर में पाँच हो गए थे । जहाँ उनकी पोस्टिंग होती बुआ जी साथ ही रहतीं । रिटायर हुए तो गाँव में आ गए । धीरे – धीरे बुआ जी ने घर की रसोई का ज़िम्मा ले लिया और भाई की पसंद नापसंद को ध्यान में रख कर ही खाना बनाती । कभी भाभी से पूछ लेतीं……
हैं…भाभी….क्या बनाऊँ…….
तो भाभी हँस कर कह देतीं………..
बीबीजी…..बनेगा तो वही जो आपके भाई खाएँगे……।
बुआ जी उनकी बात पर मुस्कुरा देतीं और खुद ही फ़ैसला कर लेतीं……
पालक की कढ़ी बना लेती हूँ भाई साहब को बहुत पसंद है….।
बुआ जी के जीवन का केंद्र बिंदु तो बस भाईसाहब थे या फिर आँगन में लगी तुलसी ,……..सुबह से शाम , बस भाई के खाने की सोच में या तुलसी की देखभाल में बिता देतीं। उनकी अपनी आवश्यकताएँ थी या नही पता नही…..लेकिन उन्होंने अपने मुँह से कभी कुछ माँगा नही । घर में अगर बुआ जी ना होतीं तो कौन सा त्योहार कब आने वाला है ये कैसे पता चलता……? वही थीं , जो भाभी को पंचांग पढ़ , त्योहारों की ख़बर दे देतीं थीं। उनकी मीठी वाणी के कायल तो घर के सारे नौकर – चाकर भी थे , सबका ध्यान रखतीं । कोई बीमार हो जाए तो खुद चाय बनाकर पिलातीं और साथ में डाँट भी पिलातीं…………
क्यूँ री अंगूरी……तुझ से कितनी बार कहा है कि ठंड में नंगे पैर काम मत किया कर…पर नही…..अब भुगत ।
अब बुआ जी की डाँट को कोई डाँट कहाँ समझता था वो तो प्यार भरी झिड़की होती थी जिसमें अपनत्व था ।
नवरात्री के दिनों में तो उनकी आँखें भी मुस्काती थीं । एक दिन पहले सबको सूचित कर दिया जाता……
कल से नवरात्र शुरू हो रहे हैं , घर की सफ़ाई करनी है…….साँझी आएगी ।
ये घर भर के लिए विशेष सूचना होती थी । दुनिया से बेख़बर रहने वाली बुआ जी साँझी की तैयारी में इतनी उतावली होती थीं कि देखते ही बनता था , वो गुमसुम रहने वाली बुआ जी , नौकरों को अपनी खनकती मीठी आवाज़ में हिदायतें दे रही होती थीं……सुबह से घर के हर सदस्य में उत्साह होता था और काम में लगे रहते थे ।
त्योहार के आने की ख़ुशी में घर खिला-खिला सा लगता । बुआ जी ने सुबह उठते ही अपनी ओर का आँगन धोया और अपना पल्लू लटकातीं बाहर चली गईं , आईं तो एक टोकरी में गाय का गोबर और मिट्टी थी । ज़मीन पर फैल कर बैठ गईं और दीवार पर गाय के गोबर से बड़े प्यार से साँझी बनाने लगीं । मिट्टी से ज़ेवर और कपड़े बनाने का काम बहू नलिनी और अंबा को मिला । घर का आँगन उस मिट्टी की ख़ुशबू से महक उठा ।
शाम तक साँझी तैयार हो गई थी , चमकती , सलमें – सितारों के कपड़े पहने । बुआ जी बहुत कम मुस्कुराती देखीं थी…., लेकिन इन दिनों तो उनकी आँखें भी मुस्काती थीं । अंगूरी हाथ में झाड़ू लिए साँझी निहारती अपनी जवानी के किस्से सुना रही थी कि बुआ जी की नज़र उस पर पड़ी…..
तू खड़ी-खड़ी बातें बनाए जा……काम कौन करेगा……?
और वो दाँत निपोरती वहाँ से हवा हो गई , बुआ जी की डाँट पर सब मुस्कुरा ही देते थे । रसोई से हलवे की खुशबू आ रही थी , साँझी को जिमाना जो था……। बुआ जी ने एक कटोरी पहले साँझी के लिए फिर एक बड़ा कटोरा भर कर अलग रखते हुए बोलीं…
ये भाई साहब का है , कोई हाथ मत लगाना ।
घर के आँगन में जहाँ तुलसी का पौधा लगा था , वहीं पास की दीवार पर साँझी बनी थी और बुआ जी बच्चों की टीम के साथ बैठीं , तरह-तरह के पकवानों से थाल सजाए गीत गा रही थीं………..
मेरी संझा…..ए….क्या खावैगी…..क्या पीवैगी……
बच्चे तालियाँ बजा-बजा कर बुआ जी का साथ दे रहे थे…उनके आनंद का अंदाज़ा उनके खिले चेहरों से ही लग रहा था । उसके पीछे रहस्य भी था…..और वो रहस्य था गीत के बाद उन्हें वो मज़ेदार खाना मिलने वाला था । ये नौ दिन की उनकी दावत दोनों वक्त होगी….शर्त केवल यही थी कि बुआ जी के साथ बैठ कर गीत गाओ….साँझी को मनाओ और फिर खुद खाओ । अब शर्त कोई मुश्किल भी नही थी । कभी – कभी गीत लंबा हो जाता तो शीनू जैसा बदमाश एक आँख खोल कर थाली तक हाथ बढ़ाकर साँझी से पहले ही जीमने की कोशिश करता तो बुआ जी की तेज़ निगाहें हाथ पकड़ लेतीं……….
शीनू के बच्चे……ठहर जा…..मक्कार कहीं का…..साँझी को तो खाने दे…।
और शीनू बेचारा मुँह बना कर रह जाता और ललचाई नज़रों से पकवानों से सजे थाल को होठों पर ज़बान फिराता देखता रहता ।
अब तो हर रोज़ घर में तरह-तरह के पकवान बन रहे थे , और रसोई पूरी तरह से बुआ जी संभाल रही थीं । पर एक बात ज़रूर थी , जो सब जानते थे कि साँझी को भोग लगाने के नाम पर बुआ जी , पसंद अपने भाई साहब की ही ध्यान में रखतीं….
आज तो पालक की कढ़ी बनाऊँगी , भाई साहब को बहुत पसंद है……, साथ में चूरमा बना देती हूँ , भाई साहब अम्मा से रोज़ चूरमा बनवाते थे ।
सब हँसते कि बुआ जी साँझी की पसंद और भाईसाहब की पसंद एक ही समझती हैं ।
साँझी को खूब गीत गा-गा कर भोग लगाया जाता……….
करते – करते नौ दिन कैसे बीत गए पता ही नही चला । आखिर वो दिन भी आ गया जब साँझी को अपने घर से ससुराल विदा होना था । उसकी भी तैयारियाँ होने लगीं……..एक सुंदर मटका लेकर रंगों से सजाया गया और उसमें छोटे-छोटे छेद किए गए । पर आज बुआ जी सुबह से मुस्कुराई नही , फिर कुछ गुमसुम सी थीं ।
हलवा – पूरी बनाए गए आखिरी दिन भोग लगाया गया , पर गीत कुछ उदासी भरा था……साँझी आज ससुराल जाने के नाम से उदास थी……मना-मना कर खिला रहे थे……
मैं तनैं बूझूँ संझा…..किसकी मानैगी…….भाई आया…..भाभी आई…….खाले मेरी संझा…….
और फिर सारा घर गिना दिया गया , तब जाके साँझी ने भोग लगाया…….सूरज छिपने से पहले ही भारी मन से साँझी को दीवार से उतारा गया……और सजे मटके में रखा गया……..सूरज ढलते ही उसमें दीए जला कर रखे गए , कहीं ऐसा ना हो रास्ता भूल जाए , सिर पर रख कर सब पीछे-पीछे चले……बुआ जी के साथ सब रूँधे गले से गीत गाती चल रही थीं……….
साथन चाल पड़ी ए मेरे डब-डब भर आए नैन……….
पास की नहर में साँझी का विसर्जन कर लौटे तो घर सूना-सूना लग रहा था….बुआ जी चुपचाप अपने कमरे में चली गईं , फिर सुबह से उनकी वही पुरानी दिनचर्या शुरू हो गई…..कभी तुलसी को पानी देतीं , कभी गीता पढ़तीं तो कभी अपने भाई के पसंद का खाना बनातीं । कभी-कभी खाना बनाते – बनाते वो मुस्कुरातीं , कुछ बात याद आई होगी उन्हें…..पास बैठी नलिनी ने पूछ लिया……
बुआ जी कुछ याद आ गया क्या…जो आप मन ही मन मुस्कुरा रही हैं…..मुझे भी बताइए ना……..।
फिर तो बुआ जी बड़े चाव से अपने भाई के किस्से सुनाने लगीं………ये यादें उनके जीवन की मधुर और मीठी यादें थीं , वो मुँह में गुड़ की डली की तरह स्वाद लेकर सुना रही थीं……
उनके जीवन में जैसे और कुछ इतना मधुर था ही नही जितनी कि उनके भाई से जुड़ी उनकी यादें……
मेरे भाई साहब पढ़ाई में बड़े होशियार थे , आस-पास के दस गाँव में , वो पहले अफ़सर बने थे……जब पहली बार अफ़सर बनकर , बाऊ जी से मिलने आए तो बाऊ जी गाजे-बाजे के साथ गाँव वालों को लेकर स्टेशन पहुँचे थे और भाईसाहब जब वर्दी पहन कर ट्रेन से उतरे , तो ऐसे बाँके जवान लग रहे थे….जैसे सिनेमा के हीरो…।
ये किस्सा सुनाते हुए बुआ जी की छोटी-छोटी आँखों में अनगिनत तारे चमक रहे थे , प्यार का सागर उमड़ रहा था । नलिनी एक टक उनकी ओर देख रही थी , उनकी आँखों में अनकही कहानियाँ पढ़ना चाह रही थीं ।
एक सुबह बुआ जी ने बैठक के पास आकर आवाज़ लगाई………
भाई साहब……..आज क्या बनाऊँ…?
तो कुछ देर तक आवाज़ नही आई ।
बुआ जी के चेहरे पर चिंता और घबराहट आई………उन्होंने धीरे से दरवाज़ा खोला तो देखा कि कर्नल साहब कारपेट पर चादर ओढ़े लेटे हैं । वे पास गईं और काँपते हाथों से उन्हें हिलाया……………
भाई साहब क्या बात हो गई…अरे….आपको तो तेज़ बुख़ार है….? भाभी आना….देखो तो…..ज़रा…।
अगले कई दिन कर्नल साहब का बुख़ार नही टूटा और बुआ जी उनके कमरे के आस पास चक्कर लगातीं रहीं लेकिन भीतर नही जातीं…..बस भाभी से हालचाल पूछ उनके लिए बीमारी में दी जाने वाली तरह-तरह की चीज़ें बनातीं…….
भाभी आज साबूदाना बना दूँ……खिचड़ी तो कल ही खाई थी……
चुपचाप रसोई में उनके लिए कुछ नया बनाती रहतीं………कुछ दिनों बाद पता चला कि कर्नल साहब को कैंसर ने जकड़ लिया था…..यह बात बुआ जी से छिपाई गई ……लेकिन अपने भाई की गिरती सेहत उनसे छिपी नही थी…..उन्हें किसी अनहोनी का आभास हो रहा था शायद , उन्होंने एक अजीब सी चुप्पी ओढ़ ली । भाई खाता तो वो खातीं , भाई नही खाता तो वो किसी व्रत का बहाना कर अपने कमरे में बैठी गीता पढ़ती रहतीं । फिर एक दिन कर्नल साहब का संघर्ष ख़त्म हो गया…….आखिरी शब्द जो उनके मुख से निकला वो मोना ही था…….और बुआ जी अपने कमरे में चुपचाप जाकर बैठ गईं , जब कर्नल साहब को अंतिम यात्रा के लिए ले जाने लगे तो घर के बड़े-बूढ़ों ने बुआ जी से कहा………..
मोना , चल आखिरी बार भाई का चेहरा देख ले……..तेरा नाम लेते गए हैं…।
लेकिन बुआ जी अपने पलंग पर करवट लेकर लेटी रहीं और हिलीं नही । वो अपने कमरे से बाहर नही आईं और ना उन्होंने भाई को आखिरी बार जाते देखा।
लोग कहते…..
साँसें जैसे मोना में अटकी थीं……..आखिर साँस में भी मोना ही कहा…..बड़ी फ़िकर थी मोना कि……..
कुछ खाने के लिए उन्हें वहीं दे आते तो पलंग पर लेटी बिन देखे कह देतीं………..
रख दे वहीं……..
अगले दिन देखते तो खाना यूँही पड़ा होता……बस पानी पीतीं…..या एक ग्रास खा लेतीं…..। तेरह दिन बाद घर के आँगन में कुछ आवाज़ आई….भाभी ने बाहर झाँक कर देखा तो बुआ जी नलके पर कपड़ों समेत सिर से नहा रही थीं और धीरे-धीरे कोई श्लोक बुदबुदा रही थीं । पानी का लोटा भरा और तुलसी में पानी दे कर अपने कमरे की ओर चली गईं । बुआ जी ने अपनी दिनचर्या फिर से शुरू कर दी थी और सबने सोचा कि उन्होंने अपने भाई का जाना स्वीकार कर लिया था शायद…………..
उस दिन के बाद से उनकी दिनचर्या में एक परिवर्तन तो ज़रूर आया था….और वो था उनका रसोई में आना……जहाँ वो दिनभर रसोई में बिताती थीं वहीं अब रसोई की ओर मुँह भी नही करती थीं ।
जो देते चुपचाप खा लेतीं लेकिन बहुत सीमित……., वो तरह-तरह के पकवान बनाने और खाने की शौकीन बुआ जी स्वाद शब्द भूल गईं थीं । वे केवल सुबह तुलसी और सूरज को जल चढ़ाती ही दिखतीं , बाकी समय में अपने कमरे में बैठी गीता पढ़ती , नहीं तो गुमसुम बिस्तर पर लेटी छत को ताका करतीं…..। अब वो घरवालों से नही ख़ुद से बातें करतीं…..। सप्ताह के दो दिन के व्रत अब चार दिन में बदल गए थे…..बहुत कहते………
बुआ जी ऐसे तो आप बीमार हो जाएँगी……..कुछ तो खाईए……।
लेकिन वो अपने व्रत पर अड़ी रहीं । अब अंबा ही थी जो सुबह-शाम किसी तरह उन्हें दूध में चाय पत्ती डालकर बहला देती और पेट में कुछ तो जाता । एक दिन सबने देखा कि बुआ जी लड़खड़ाती सी सिर पर पट्टी बाँधे तुलसी को जल दे रही थीं , पूछा तो धीरे से बोलीं…….
मरा , ये सिर दर्द बहुत तंग कर रहा है…..।
सबने कहा………
बुआ जी डॉक्टर के पास चलो…..दिखा देते हैं ।
लेकिन वो नज़रें नीची किए अनसुना कर चुपचाप कमरे में चली जातीं । सिर का दर्द बढ़ता गया और सिर की पट्टी कसती गई । लेकिन फिर एक दिन वो भीतर का दर्द फट कर बाहर आ गया…..ज़ख़्म बन गया । डॉक्टर घर आकर देख रहा था , पर उन्हें अब वो दर्द महसूस नही हो रहा था………जैसे उस फटे ज़ख़्म से उन्हें सुकून मिल रहा था……, चेहरे पर दर्द का नामो-निशान नही । डॉक्टर परेशान थे , उन्हें देखते ही वो मुँह फेर कर लेट जातीं……ज़ख्म पर कुछ भी करो उफ़…तक नही करतीं। अब उनका उठना – बैठना भी बंद हो गया । किसी को पास भी नही आने देतीं , सिर्फ़ अंबा जाती और कुछ ज़बरदस्ती मुँह में डाल देती । आँगन की फैली तुलसी में पानी देने की याद वो अंबा को ही करातीं ।
जनवरी का महीना था , ऐसा जाड़ा कि हाथ पैर जमे जाते थे । बुआ जी तो पतली धोती ओढ़े लेटीं थी….रजाई उठा कर परे फैंक दी…..अंबा को पुकारा….
अंबा…..आज तू कॉलेज मत जा…..। गीता का अट्ठारवाँ अध्याय सुना ।
अंबा उनके बिल्कुल पास बैठ कर पढ़ने लगी…………………………
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकम् ।।
आत्मा को बाँटा नही जा सकता । शरीर अलग-अलग है पर आत्मा एक ही है । अंबा ने आँख उठा कर देखा तो बुआ जी चैन से आँखें मूँदे थीं । अंबा की आँखों से आँसू बह रहे थे । सब ख़ामोश सजल आँखों से अपनी साँझी को विदा करने की तैयारी में लग गए थे ।