साँझी

रिश्तों को किसी मान्यता की आवश्यकता नही होती , वो तो दिल से दिल के होते हैं , फिर चाहे वो कोई भी रिश्ता क्यूँ न हो । आज मैं एक ऐसे ही रिश्ते की बात कर रही हूँ…..भाई – बहन के रिश्ते की ।रिश्तों में कुछ कहने सुनने की कोई जगह नही होती…..ये मैंने अपने पिता (जिन्हें समाज के आधार पर ससुर कहा जाता है) से सीखा । उनकी छोटी बहन के साथ उनके रिश्ते ने मेरा दिल हिला कर रख दिया था । आज उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर इस बहन – भाई की कहानी के माध्यम से मैं उस रिश्ते को श्रृद्धांजली अर्पित करती हूँ । लिखते हुए कई बार दिल रिस्ता रहा । कहानी केवल उनसे प्रेरित है , कुछ कल्पना तो कुछ असल है ।

साँझी

बुआ जी पचास – पचपन की होंगी शायद , उनके चेहरे से उनकी उम्र का अंदाज़ा होना मुश्किल था । उनकी छोटी मगर गहरी आँखों में इतनी गहराई थी कि उनमें अनकही , ख़ामोश ज़िंदगी दफ़्न सी लगती थी । होंठ फड़फड़ाते थे पर बोलती आँखें थी । अधपके लंबे बालों की खुली सी चोटी , गोरा रंग , लंबा कद , भारी  शरीर पर बेतरतीबी से पहनी सूती धोती का लापरवाही से लटकता पल्लू । वो सारे गाँव की बुआ जी थीं । घर में किसी की क्या मज़ाल कि बुआ जी की बात टाल दे…..उनके रौब से नही बल्कि उनकी ख़ामोशी के कारण । कहते हैं कि बुआ जी की शादी दिल्ली के सीताराम बाज़ार में अच्छे खाते – पीते घर में हुई थी , लेकिन भाग्य में तो कुछ और ही लिखा था । छोटी उम्र में ही विधवा हो गईं।

फूफा जी के गुज़रने के बाद बुआ जी कुछ दिन ससुराल में ही रहीं लेकिन ससुराल वालों का व्यवहार बदल गया था । सबसे बड़ा कारण उसमें जायदाद को लेकर था , सीताराम बाज़ार की हवेली वालों को बुआ जी और उनकी बच्ची दुश्मन नज़र आने लगे । उन्हें पहले तो तानों से घायल किया गया लेकिन फिर भी बात न बनी तो हाथ उठाने लगे । एक दिन अचानक कर्नल साहब बहन से मिलने पहुँच गए तो आँख से सब देख लिया…..उन्होंने बहन का हाथ पकड़ा और बच्ची को गोद में उठाया , ससुराल वालों से कह दिया……..

अपनी हवेली अपने पास रखो……मेरी बहन यतीम नही……चाहूँ तो तुम्हें कोर्ट – कचहरी में खींच सकता हूँ…….लेकिन तुम जैसे लोगों से हमें कुछ नही चाहिए….भूल से भी इन दोनों की तरफ़ आँख उठा कर मत देखना ।

बुआ जी भाई का मुँह देखती रह गईं थीं । कर्नल साहब उन्हें घर ले आए , उनकी पत्नी ने भी बड़े प्यार और सम्मान से रखा , अंबा तो उनकी अपनी ही बेटी हो गई । चार बच्चों के साथ अब घर में पाँच हो गए थे । जहाँ उनकी पोस्टिंग होती बुआ जी साथ ही रहतीं । रिटायर हुए तो गाँव में आ गए । धीरे – धीरे बुआ जी ने घर की रसोई का ज़िम्मा ले लिया और भाई की पसंद नापसंद को ध्यान में रख कर ही खाना बनाती । कभी भाभी से पूछ लेतीं……

हैं…भाभी….क्या बनाऊँ…….

तो भाभी हँस कर कह देतीं………..

बीबीजी…..बनेगा तो वही जो आपके भाई खाएँगे……।

बुआ जी उनकी बात पर मुस्कुरा देतीं और खुद ही फ़ैसला कर लेतीं……

पालक की कढ़ी बना लेती हूँ भाई साहब को बहुत पसंद है….।

बुआ जी के जीवन का केंद्र बिंदु तो बस भाईसाहब थे या फिर आँगन में लगी तुलसी ,……..सुबह से शाम , बस भाई के खाने की सोच में या तुलसी की देखभाल में बिता देतीं। उनकी अपनी आवश्यकताएँ थी या नही पता नही…..लेकिन उन्होंने अपने मुँह से कभी कुछ माँगा नही । घर में अगर बुआ जी ना होतीं तो कौन सा त्योहार कब आने वाला है ये कैसे पता चलता……? वही थीं , जो भाभी को पंचांग पढ़ , त्योहारों की ख़बर दे देतीं थीं। उनकी मीठी वाणी के कायल तो घर के सारे नौकर – चाकर भी थे , सबका ध्यान रखतीं । कोई बीमार हो जाए तो खुद चाय बनाकर पिलातीं और साथ में डाँट भी पिलातीं…………

क्यूँ री अंगूरी……तुझ से कितनी बार कहा है कि ठंड में नंगे पैर काम मत किया कर…पर नही…..अब भुगत ।

अब बुआ जी की डाँट को कोई डाँट कहाँ समझता था वो तो प्यार भरी झिड़की होती थी जिसमें अपनत्व था ।

नवरात्री के दिनों में तो उनकी आँखें भी मुस्काती थीं । एक दिन पहले सबको सूचित कर दिया जाता……

कल से नवरात्र शुरू हो रहे हैं , घर की सफ़ाई करनी है…….साँझी आएगी ।

ये घर भर के लिए विशेष सूचना होती थी । दुनिया से बेख़बर रहने वाली बुआ जी साँझी की तैयारी में इतनी उतावली होती थीं कि देखते ही बनता था , वो गुमसुम रहने वाली बुआ जी , नौकरों को अपनी खनकती मीठी आवाज़ में हिदायतें दे रही होती थीं……सुबह से घर के हर सदस्य में उत्साह होता था और काम में लगे रहते थे ।

त्योहार के आने की ख़ुशी में घर खिला-खिला सा लगता । बुआ जी ने सुबह उठते ही अपनी ओर का आँगन धोया और अपना पल्लू लटकातीं बाहर चली गईं , आईं तो एक टोकरी में गाय का गोबर और मिट्टी थी । ज़मीन पर फैल कर बैठ गईं और दीवार पर गाय के गोबर से बड़े प्यार से साँझी बनाने लगीं । मिट्टी से ज़ेवर और कपड़े बनाने का काम बहू नलिनी और अंबा को मिला । घर का आँगन उस मिट्टी की ख़ुशबू से महक उठा ।

शाम तक साँझी तैयार हो गई थी , चमकती , सलमें – सितारों के कपड़े पहने । बुआ जी बहुत कम मुस्कुराती देखीं थी…., लेकिन इन दिनों तो उनकी आँखें भी मुस्काती थीं । अंगूरी हाथ में झाड़ू लिए साँझी निहारती अपनी जवानी के किस्से सुना रही थी कि बुआ जी की नज़र उस पर पड़ी…..

तू खड़ी-खड़ी बातें बनाए जा……काम कौन करेगा……?

और वो दाँत निपोरती वहाँ से हवा हो गई , बुआ जी की डाँट पर सब मुस्कुरा ही देते थे । रसोई से हलवे की खुशबू आ रही थी , साँझी को जिमाना जो था……। बुआ जी ने एक कटोरी पहले साँझी के लिए फिर एक बड़ा कटोरा भर कर अलग रखते हुए बोलीं…

ये भाई साहब का है , कोई हाथ मत लगाना ।

घर के आँगन में जहाँ तुलसी का पौधा लगा था , वहीं पास की दीवार पर साँझी बनी थी और बुआ जी बच्चों की टीम के साथ बैठीं , तरह-तरह के पकवानों से थाल सजाए गीत गा रही थीं………..

मेरी संझा…..ए….क्या खावैगी…..क्या पीवैगी……

बच्चे तालियाँ बजा-बजा कर बुआ जी का साथ दे रहे थे…उनके आनंद का अंदाज़ा उनके खिले चेहरों से ही लग रहा था । उसके पीछे रहस्य भी था…..और वो रहस्य था गीत के बाद उन्हें वो मज़ेदार खाना मिलने वाला था । ये नौ दिन की उनकी दावत दोनों वक्त होगी….शर्त केवल यही थी कि बुआ जी के साथ बैठ कर गीत गाओ….साँझी को मनाओ और फिर खुद खाओ । अब शर्त कोई मुश्किल भी नही थी । कभी – कभी गीत लंबा हो जाता तो शीनू जैसा बदमाश एक आँख खोल कर थाली तक हाथ बढ़ाकर साँझी से पहले ही जीमने की कोशिश करता तो बुआ जी की तेज़ निगाहें हाथ पकड़ लेतीं……….

शीनू के बच्चे……ठहर जा…..मक्कार कहीं का…..साँझी को तो खाने दे…।

और शीनू बेचारा मुँह बना कर रह जाता और ललचाई नज़रों से पकवानों से सजे थाल को होठों पर ज़बान फिराता देखता रहता ।

अब तो हर रोज़ घर में तरह-तरह के पकवान बन रहे थे , और रसोई पूरी तरह से बुआ जी संभाल रही थीं । पर एक बात ज़रूर थी , जो सब जानते थे कि साँझी को भोग लगाने के नाम पर बुआ जी , पसंद अपने भाई साहब की ही ध्यान में रखतीं….

आज तो पालक की कढ़ी बनाऊँगी , भाई साहब को बहुत पसंद है……, साथ में चूरमा बना देती हूँ , भाई साहब अम्मा से रोज़ चूरमा बनवाते थे ।

सब हँसते कि बुआ जी साँझी की पसंद और भाईसाहब की पसंद एक ही समझती हैं ।

साँझी को खूब गीत गा-गा कर भोग लगाया जाता……….

करते – करते नौ दिन कैसे बीत गए पता ही नही चला । आखिर वो दिन भी आ गया जब साँझी को अपने घर से ससुराल विदा होना था । उसकी भी तैयारियाँ होने लगीं……..एक सुंदर मटका लेकर रंगों से सजाया गया और उसमें छोटे-छोटे छेद किए गए । पर आज बुआ जी सुबह से मुस्कुराई नही , फिर कुछ गुमसुम सी थीं ।

हलवा – पूरी बनाए गए आखिरी दिन भोग लगाया गया , पर गीत कुछ उदासी भरा था……साँझी आज ससुराल जाने के नाम से उदास थी……मना-मना कर खिला रहे थे……

मैं तनैं बूझूँ संझा…..किसकी मानैगी…….भाई आया…..भाभी आई…….खाले मेरी संझा…….

और फिर सारा घर गिना दिया गया , तब जाके साँझी ने भोग लगाया…….सूरज छिपने से पहले ही भारी मन से साँझी को दीवार से उतारा गया……और सजे मटके में रखा गया……..सूरज ढलते ही उसमें दीए जला कर रखे गए , कहीं ऐसा ना हो रास्ता भूल जाए , सिर पर रख कर सब पीछे-पीछे चले……बुआ जी के साथ सब रूँधे गले से गीत गाती चल रही थीं……….

साथन चाल पड़ी ए मेरे डब-डब भर आए नैन……….

पास की नहर में साँझी का विसर्जन कर लौटे तो घर सूना-सूना लग रहा था….बुआ जी चुपचाप अपने कमरे में चली गईं , फिर सुबह से उनकी वही पुरानी दिनचर्या शुरू हो गई…..कभी तुलसी को पानी देतीं , कभी गीता पढ़तीं तो कभी अपने भाई के पसंद का खाना बनातीं । कभी-कभी खाना बनाते – बनाते वो मुस्कुरातीं  , कुछ बात याद आई होगी उन्हें…..पास बैठी नलिनी ने पूछ लिया……

बुआ जी कुछ याद आ गया क्या…जो आप मन ही मन मुस्कुरा रही हैं…..मुझे भी बताइए ना……..।

फिर तो बुआ जी बड़े चाव से अपने भाई के किस्से सुनाने लगीं………ये यादें उनके जीवन की मधुर और मीठी यादें थीं , वो मुँह में गुड़ की डली की तरह स्वाद लेकर सुना रही थीं……

उनके जीवन में जैसे और कुछ इतना मधुर था ही नही जितनी कि उनके भाई से जुड़ी उनकी यादें……

मेरे भाई साहब पढ़ाई में बड़े होशियार थे , आस-पास के दस गाँव में , वो पहले अफ़सर बने थे……जब पहली बार अफ़सर बनकर , बाऊ जी से मिलने आए तो बाऊ जी गाजे-बाजे के साथ गाँव वालों को लेकर स्टेशन पहुँचे थे और भाईसाहब जब वर्दी पहन कर ट्रेन से उतरे , तो ऐसे बाँके जवान लग रहे थे….जैसे सिनेमा के हीरो…।

ये किस्सा सुनाते हुए बुआ जी की छोटी-छोटी आँखों में अनगिनत तारे चमक रहे थे , प्यार का सागर उमड़ रहा था । नलिनी एक टक उनकी ओर देख रही थी , उनकी आँखों में अनकही कहानियाँ पढ़ना चाह रही थीं ।

एक सुबह बुआ जी ने बैठक के पास आकर आवाज़ लगाई………

भाई साहब……..आज क्या बनाऊँ…?

तो कुछ देर तक आवाज़ नही आई ।

बुआ जी के चेहरे पर चिंता और घबराहट आई………उन्होंने धीरे से दरवाज़ा खोला तो देखा कि कर्नल साहब कारपेट पर चादर ओढ़े लेटे हैं । वे पास गईं और काँपते हाथों से उन्हें हिलाया……………

भाई साहब क्या बात हो गई…अरे….आपको तो तेज़ बुख़ार है….? भाभी आना….देखो तो…..ज़रा…।

अगले कई दिन कर्नल साहब का बुख़ार नही टूटा और बुआ जी उनके कमरे के आस पास चक्कर लगातीं रहीं लेकिन भीतर नही जातीं…..बस भाभी से हालचाल पूछ उनके लिए बीमारी में दी जाने वाली तरह-तरह की चीज़ें बनातीं…….

भाभी आज साबूदाना बना दूँ……खिचड़ी तो कल ही खाई थी……

चुपचाप रसोई में उनके लिए कुछ नया बनाती रहतीं………कुछ दिनों बाद पता चला कि कर्नल साहब को कैंसर ने जकड़ लिया था…..यह बात बुआ जी से छिपाई गई ……लेकिन अपने भाई की गिरती सेहत उनसे छिपी नही थी…..उन्हें किसी अनहोनी का आभास हो रहा था शायद , उन्होंने एक अजीब सी चुप्पी ओढ़ ली । भाई खाता तो वो खातीं , भाई नही खाता तो वो किसी व्रत का बहाना कर अपने कमरे में बैठी गीता पढ़ती रहतीं । फिर एक दिन कर्नल साहब का संघर्ष ख़त्म हो गया…….आखिरी शब्द जो उनके मुख से निकला वो मोना ही था…….और बुआ जी अपने कमरे में चुपचाप जाकर बैठ गईं , जब कर्नल साहब को अंतिम यात्रा के लिए ले जाने लगे तो घर के बड़े-बूढ़ों ने बुआ जी से कहा………..

मोना , चल आखिरी बार भाई का चेहरा देख ले……..तेरा नाम लेते गए हैं…।

लेकिन बुआ जी अपने पलंग पर करवट लेकर लेटी रहीं और हिलीं नही । वो अपने कमरे से बाहर नही आईं और ना उन्होंने भाई को आखिरी बार जाते देखा।

लोग कहते…..

साँसें जैसे मोना में अटकी थीं……..आखिर साँस में भी मोना ही कहा…..बड़ी फ़िकर थी मोना कि……..

कुछ खाने के लिए उन्हें वहीं दे आते तो पलंग पर लेटी बिन देखे कह देतीं………..

रख दे वहीं……..

अगले दिन देखते तो खाना यूँही पड़ा होता……बस पानी पीतीं…..या एक ग्रास खा लेतीं…..। तेरह दिन बाद घर के आँगन में कुछ आवाज़ आई….भाभी ने बाहर झाँक कर देखा तो बुआ जी नलके पर कपड़ों समेत सिर से नहा रही थीं और धीरे-धीरे कोई श्लोक बुदबुदा रही थीं । पानी का लोटा भरा और तुलसी में पानी दे कर अपने कमरे की ओर चली गईं । बुआ जी ने अपनी दिनचर्या फिर से शुरू कर दी थी और सबने सोचा कि उन्होंने अपने भाई का जाना स्वीकार कर लिया था शायद…………..

उस दिन के बाद से उनकी दिनचर्या में एक परिवर्तन तो ज़रूर आया था….और वो था उनका रसोई में आना……जहाँ वो दिनभर रसोई में बिताती थीं वहीं अब रसोई की ओर मुँह भी नही करती थीं ।

जो देते चुपचाप खा लेतीं लेकिन बहुत सीमित……., वो तरह-तरह के पकवान बनाने और खाने की शौकीन बुआ जी स्वाद शब्द भूल गईं थीं । वे केवल सुबह तुलसी और सूरज को जल चढ़ाती ही दिखतीं , बाकी समय में अपने कमरे में बैठी गीता पढ़ती , नहीं तो गुमसुम बिस्तर पर लेटी छत को ताका करतीं…..। अब वो घरवालों से नही ख़ुद से बातें करतीं…..। सप्ताह के दो दिन के व्रत अब चार दिन में बदल गए थे…..बहुत कहते………

बुआ जी ऐसे तो आप बीमार हो जाएँगी……..कुछ तो खाईए……।

लेकिन वो अपने व्रत पर अड़ी रहीं । अब अंबा ही थी जो सुबह-शाम किसी तरह उन्हें दूध में चाय पत्ती डालकर बहला देती और पेट में कुछ तो जाता । एक दिन सबने देखा कि बुआ जी लड़खड़ाती सी सिर पर पट्टी बाँधे तुलसी को जल दे रही थीं , पूछा तो धीरे से बोलीं…….

मरा , ये सिर दर्द बहुत तंग कर रहा है…..।

सबने  कहा………

बुआ जी डॉक्टर के पास चलो…..दिखा देते हैं ।

लेकिन वो नज़रें नीची किए अनसुना कर चुपचाप कमरे में चली जातीं । सिर का दर्द बढ़ता गया और सिर की पट्टी कसती गई । लेकिन फिर एक दिन वो भीतर का दर्द फट कर बाहर आ गया…..ज़ख़्म बन गया । डॉक्टर घर आकर देख रहा था , पर उन्हें अब वो दर्द महसूस नही हो रहा था………जैसे उस फटे ज़ख़्म से उन्हें सुकून मिल रहा था……, चेहरे पर दर्द का नामो-निशान नही । डॉक्टर परेशान थे , उन्हें देखते ही वो मुँह फेर कर लेट जातीं……ज़ख्म पर कुछ भी करो उफ़…तक नही करतीं। अब उनका उठना – बैठना भी बंद हो गया । किसी को पास भी नही आने देतीं , सिर्फ़ अंबा जाती और कुछ ज़बरदस्ती मुँह में डाल देती । आँगन की फैली तुलसी में पानी देने की याद वो अंबा को ही करातीं ।

जनवरी का महीना था , ऐसा जाड़ा कि हाथ पैर जमे जाते थे । बुआ जी तो पतली धोती ओढ़े लेटीं थी….रजाई उठा कर परे फैंक दी…..अंबा को पुकारा….

अंबा…..आज तू कॉलेज मत जा…..। गीता का अट्ठारवाँ अध्याय सुना ।

अंबा उनके बिल्कुल पास बैठ कर पढ़ने लगी…………………………

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।

अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकम् ।।

आत्मा को बाँटा नही जा सकता । शरीर अलग-अलग है पर आत्मा एक ही है । अंबा ने आँख उठा कर देखा तो बुआ जी चैन से आँखें मूँदे थीं । अंबा की आँखों से आँसू बह रहे थे । सब ख़ामोश सजल आँखों से अपनी साँझी को विदा करने की तैयारी में लग गए थे ।

 

नया कदम

ठीक से कह नही सकती कि मैंने यूँ लिखना क्यूँ पसंद किया । शायद अपनी इस तलाश के सफ़र में एक और पन्ना खोल दिया । अपने आस पास घट रहे जीवन के कुछ पलों को अपनों से बाँटने की चाह में ये कदम उठाया । कुछ ऐसे भी साधारण लोग होते हैं कि उनके पास से गुज़रो तो न भूलने वाला एहसास छोड़ जाते हैं । सोचा उनके बारे में लिख दूँ क्योंकि मेरे लिए वे असाधारण हैं और प्रेरणा के स्त्रोत भी । कुछ ऐसी घटनाएँ भी लिखने की चाह मन में थी कि जिन्हें पढ़ कर शायद कहीं कोई बदलाव की उम्मीद जागे । अब मैं कोई नेता या उपदेशक नही हूँ और न बनना चाहती हूँ । मेरे जैसे कई होंगे जिनके पास बहुत कुछ होगा कहने को , बस उन्हीं की बातें लिखूँगी । इस श्रृंखला की शुरूआत मैं अपने गाँव के ऐसे व्यक्ति के संघर्षमय जीवन की कहानी से कर रही हूँ जिसने मुझ पर गहरा असर डाला । उसने सिखाया कि जीवन सिर उठा कर जीने का नाम है । हालात जैसे भी हों सुधारे जा सकते हैं । कहानी में थोड़ी काल्पनिकता डालने के लिए रवी भाई क्षमा । यह उनकी अधूरी कहानी है , उनकी दिवंगत आत्मा को शत-शत प्रणाम ।

गुमशुदा ख़्वाब

गाँव की तंग , हथेली की रेखाओं सी फैली गलियों में रवी की ट्रायसाईकिल अनोखी सी आवाज़ वाला हॉर्न बजाती हर रोज़ घूमती थी । ये हॉर्न भी शायद रवी की ही इजात थी , और बच्चे घरों से निकल , रवी भैया….. रवी भैया……., करते हुए उसके पीछे भागते…….कारण , उसकी ट्रायसाइकिल के पीछे , टोकरी में भरी रंगबिरंगी पतंगें थीं । बैटमैन , स्पाइडर मैन , सूपरमैन और न जाने क्या – क्या उसकी पतंगों में बना होता । दशहरे के दिनों में वे पतंगें रावण , रामचंद्र जी , हनुमान जी आदि का रूप ले लेती और दिसंबर के महीने में सांता बन जातीं………। बच्चे उसकी पतंगों के दीवाने थे , वैसे बड़े भी पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के दिनों में ऑर्डर पर उससे पतंगें बनवाते थे । रवी के हाथों की कलाकारी उन पतंगों पर निखर कर आती । उस ऊपर वाले ने उसे जनम से पैर तो नही दिए थे लेकिन उसके हाथों में कला का जादू भर दिया था । मिट्टी के खिलौनों में ऐसे – ऐसे रंग भरता कि लोग हैरान हो जाते , उसकी सारी कल्पनाएँ उन रंग बिरंगे कागज़ों और मिट्टी के खिलौनों में उतर जाती । घर में माँ , दो भाई और एक बहन थी , बहन जो जीवन भर बच्ची ही रही , कभी बड़ी हुई ही नही , दोनों छोटे भाई स्कूल में पढ़ते थे । पिता गाँव में पंडिताई कर के घर चलाया करते थे लेकिन एक दिन लंबी बीमारी के बाद उन्होंने भी आँखें मूँद लीं…………, तब से रवी ,घर का बड़ा बन गया था । दसवीं के बाद उसे स्कूल छोड़ना पड़ा । ये ट्राईसाईकिल रवि के पैर बन गई थी , कौन सा काम था जो रवी नही कर सकता था । सारे गाँव के बिजली के बिल , टेलीफ़ोन के बिल शहर जा कर वही तो भरता था । काम करते – करते अपने फ़ेवरेट मन्ना डे के गीत गुनगुनाता । कोई भजन – कीर्तन का समय हो , तो रवी  को सबसे पहले याद किया जाता , और वो भी ऐसे भजन गाता कि लोगों की आँखों से आँसू बहते । रामलीला के दिनों में रामचंद्र जी के सभी संवाद रवी की आवाज़ में होते । गाँव वाले उसे प्यार से नरसिंह भगत कह कर बुलाते । लेकिन इस नरसिंह भगत को उस नरसिंह भगत की तरह हुंडी नही मिली थी , घर में पैसे की तंगी बनी ही रहती ।

रवी दिन – रात पतंगें और मिट्टी के खिलौने बनाता लेकिन पतंग और मिट्टी का मोल बड़ी मुश्किल से कोई देता……….

अरे मिट्टी के इतने दाम ……. , और ये पतंग ही तो हैं , इसमें क्या है……..

सब यही कहते और ले दे के थोड़े बहुत पैसे मिल जाते……..मन में विचार आता कि आगे पढ़ लेता तो कोई नौकरी ही कर लेता……..ऐसा कब तक चलेगा ?  वो अपने परिवार को , खुद को इस बेचारगी के जीवन से बाहर निकालना चाहता था………..

पैर नही दिए ईश्वर ने तो क्या हुआ ? जो मिला है ,ये क्या कम है……..?  यही सोचता और फिर काम में लग जाता।

हर रोज़ नियम से भानसिंह की दुकान पर जाकर अख़बार पढ़ना उसका शौक था , गाँव के पढ़े – लिखे लोगों से , देश – विदेश पर चर्चा भी करता । प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति की फ़ोटो अख़बार में देख कहता……….

एक दिन मैं भी इनके साथ फ़ोटो खिंचवाऊँगा…….

लोग हँस कर कहते………..

भगत जी सपने बहुत देखते हो….

और वो मुस्कुरा कर कहता……….

सपने देखने में क्या जाता है……

एक सपना उसकी आँखों में हमेशा तैरता रहता , एक सुखी जीवन का सपना……..अपने ईंटों के अधबने घर को पक्का करने का सपना , अपनी माँ , बहन और भाईयों के लिए खुशियों का सपना । कुछ करने की आग मन में भर जाती , लेकिन राह नही सूझ रही थी ।  उदासी और निराशा के बादल कभी घिर जाते तो कभी छंट जाते । आज कल एक नया गाना उसकी ज़बान पर चढ़ गया था जो दिनभर गुनगुनाता……….

अभी – अभी हुआ यकीं कि आग है मुझ में कहीं………

बात ये थी कि एक दिन उसने अख़बार में पढ़ा कि दिल्ली में विकलांगों की एक रेस होने वाली है , उसके लिए अपना नाम इस पते पर भेजें……..इनाम में अच्छी धनराशी और दिल्ली में एक टेलीफ़ोन बूथ मिलेगा । उसने वह ख़बर काट ली और इरादा कर लिया कि वो इसमें हिस्सा लेकर रहेगा , हो सकता है यही रास्ता उसके ख़्वाबों को ताबीर में बदल दे । उसने ख़बर ध्यान से पढ़ी और दिया गया फ़ार्म भर कर भेज दिया । बस फिर क्या था वो रेस जीतने की पूरी तैयारी में जुट गया……..हर रोज़ अपनी ट्रायसाईकिल को शहर ले जाता तो समय देखता और दिन ब दिन अपनी स्पीड तेज़ करता…….उसकी साईकिल उसे हाथ से चलानी होती……कुछ ही दिनों में उसके हाथों में छाले पड़ गए , पर वो रूका नही । हाथों पर पट्टी बाँधी और हर रोज़ चलता रहा…….

ट्रायसाईकिल चलाते – चलाते हाथ इतने घायल हो गए कि पतंग बनानी भी मुश्किल हो गई थी । माँ उसकी हालत देख दुखी हो जाती , लेकिन पतंग नही बनाएगा तो घर खर्च कैसे चलेगा……..यही सोच कर माँ से कहता……..

इतना भी दर्द नही है कि पतंग ना बना सकूँ……..।

घर में सब पतंग बनाने में उसकी सहायता करते । गाँव वाले इसे पागलपन कहते……

ऐसी पुरानी साईकिल पर भला कहीं रेस जीती जाती है…..

पर उसके पास एक ही जवाब होता……..

जीतूँ या हारूँ इससे क्या फ़रक पड़ता है , यहाँ से निकल कर एक कोशिश तो करूँगा……..।

अब समस्या ये थी कि दिल्ली जाएगा कैसे….इस ट्रायसाईकिल पर तो नही जाया जा सकता…..बस में ट्रायसाईकिल आएगी नही , तो एक ही रास्ता है कि ट्रेन से जाए । रेस की तारीख थी पच्चीस अक्टूबर और सभी प्रतिभागियों को एक दिन पहले पहुँच कर अपने नाम दर्ज़ कराने थे , बीस तारीख़ हो चुकी थी , स्टेशन कैसे पहुँचा जाएगा ये सवाल अभी भी सवाल ही था …… माँ ने समझाया……..

रहने दे , चढ़ने – उतरने में कहीं कोई ऊँच नीच हो गई , तो लेने के देने पड़ जाएँगे , क्यूँ अपनी जान जोखिम में डालता है……

लेकिन रवी का मन तो , अपनी बनाई पतंगों की तरह उड़ना चाहता था , ऊँचे बहुत ऊँचे…….आकाश को छूना चाहता था…..उसके ख़्वाबों की पतंग कट भी गई तो क्या हुआ , एक बार आकाश छू कर तो आएगा ना……..।

बेटा रहेगा कहाँ……….. ?

माँ ने चिंता जताई तो हँस कर कह दिया……

माँ इतना बड़ा रेलवे स्टेशन है , कहीं भी रात बिता लूँगा , तू फ़िकर मत कर……

और तेईस तारीख़ को उसने चलने का इरादा बना लिया , दो जोड़ी अपने सबसे अच्छे कपड़े एक थैले में डाले और स्टेशन की ओर चल दिया…..माँ को हिम्मत दी……….

चिंता मत कर , कुछ नही हुआ , तो घर वापस आ जाऊँगा ।

गाँव में कुछ ने हौसला बढ़ाया तो कुछ ने मज़ाक भी उड़ाया…….लेकिन वो बिना किसी बात का असर लिए चलता रहा…..स्टेशन पर दिल्ली की गाड़ी साढ़े बारह बजे आनी थी और वो ग्यारह बजे ही पहुँच गया था । मन में बस एक ही विचार चल रहा था कि ट्रेन में चढूँगा कैसे , मन में खुशी और उलझन दोनों चल रहे थे , वह पहली बार ट्रेन का सफ़र करने जा रहा था । इससे पहले उसे कभी बाहर जाने का मौका ही नही मिला था ।

रवी टिकट विन्डो पर जाकर टिकट ख़रीद ही रहा था कि इतने में तेज़ हॉर्न बजाती हुई ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म पर आ गई थी । स्टेशन पर लोग अपना – अपना सामान लिए एक दूसरे से टकराते , बेतहाशा भागे जा रहे थे , इस भाग दौड़ में उसे अपना वजूद कुछ खोता सा लग रहा था । वह धीरे – धीरे आगे बढ़ा , समय कम था गाड़ी सिर्फ़ बीस मिनट रूकनी थी अब उसके पास केवल पाँच मिनट रह गए थे , या तो छोड़े या हिम्मत करे………स्टेशन पर लगी बड़ी घड़ी की ओर नज़र दौड़ाई और अपनी साईकिल को एक डब्बे के पास ला कर खड़ा कर दिया , अपने हाथों के सहारे उतर कर पास खड़े लोगों को मुस्कुरा कर देखा……..

जी मेरी साईकिल और मुझे चढ़ाने में…..मेरी सहायता करेंगे……फ्लीज़ ।

पास खड़ी बुज़ुर्ग महिला ने चढ़ रहे दो जवान लड़कों की ओर देखते हुए कहा…. देखते क्या हैं……चढ़ाइए इनको जल्दी , ट्रेन चलने वाली है……।

लड़कों ने फ़रमाबरदार बच्चों की तरह रवी और उसकी साईकिल को ट्रेन में चढ़ा दिया और ट्रेन खिसकने लगी , रवी ने एक गहरी , लंबी सुकून की साँस लेते हुए उस महिला और लड़कों का शुक्रिया अदा किया………

भैया , थैंक्यू , आंटी जी थैंक्यू , आप मदद न करते तो आज मेरी ट्रेन निकल जाती…..।

वो लड़के मुस्कुरा दिए……

आप फ़िक्र ना करें , हम आपकी उतरने में भी हैल्प कर देंगे ।

राह में उन हमसफ़र साथियों से उसकी अच्छी दोस्ती भी हो गई थी । भागती ट्रेन हवा से बातें करती , गाँव , शहर को पीछे छोड़ती जा रही थी और रवी का मन भी उसके साथ भाग रहा था……….अपने सपनों की दुनिया की ओर ।

उसे लग रहा था जैसे वो हवा में उड़ रहा हो , दिल्ली वो भानसिंह के टेलिवीज़न पर खबरों में कई बार देख चुका था , शहर तो वो हर रोज़ जाता था लेकिन दिल्ली जाने का मौका कभी नही मिला था । मन में थोड़ी घबराहट थी पर थोड़ा रोमांचित भी…..कुछ नया देखने और कुछ नया करने का रोमांच । जेब में रखा पर्स टटोला कि ठीक हैं कि नही , कुछ पैसे माँ को घर खर्च के देने के बाद जो बचे वो ले आया था , अब आगे ईश्वर मालिक होगा यही सोच रहा था । मौका मिला तो दिल्ली में कुछ काम भी ढूँढ लूँगा , गाँव के मास्टर जी का लड़का विनोद , वहाँ अच्छे बड़े ओहदे पर लगा है , उसका नंबर भी ले लिया था कोई मुश्किल होगी तो उसे फ़ोन कर लेगा………स्कूल में उसी के साथ तो पढ़ता था….फिर रवी ने घर के हालात के कारण स्कूल छोड़ दिया और विनोद पढ़ गया ।

यही सब सोचता रवी दिल्ली पहुँच गया था । हमसफ़र साथियों ने उतरने में सहायता की । नई दिल्ली स्टेशन पर उतर पहले उस जगह जाना चाहता था जहाँ उसे अपना नाम दर्ज़ कराना था । पता अख़बार पर लिखा था लोगों से पूछता हुआ चल दिया , अब तो साईकिल ही उसकी सवारी थी । दिल्ली की सड़कों पर दौड़ता ट्रैफ़िक , भागते लोग , उँची – उँची इमारतें जैसे महासागर में डूब रहा था वो , रास्ते में आते – जाते लोगों के अनमने मन से बताए गए रास्तों पर चला जा रहा था । टाईम ज़्यादा हो गया था , दिन भी छिपने लगा था , मंज़िल कहाँ थी उसे कुछ पता नही था । थोड़ी देर साँस लेने को वहीं बैठ गया और अंजान चेहरों को देखता रहा ,  पास ही एक खोमचे वाला चने बेच रहा था , देख कर भूख लग आई , अजनवी शहर में दो अजनवी कुछ ही पलों में अपने से हो गए , भैया जी नए हो शहर में….. ?  खोमचे वाले ने पूछा ।

हूँ…..रास्ता ढूँढ रहा था , लगता है भटक गया हूँ , भैया आप ही बता दें ये नैशनल स्टेडियम कहाँ होगा……

रवी की थकी आवाज़ सुनकर खोमचे वाले ने एक दोने में चने भर कर उसकी ओर किए……

पहले ये खाओ……आप इंडिया गेट पर हैं और ये रहा सामने ही स्टेडियम ।

जब भूख लगी हो तो चने भी पकवान लगते हैं……, इंडियागेट के नाम से आँखों में चमक आ गई , मन देशभक्ति से भर गया……

वाह , भैया , जवान ज्योति….. !!

रवी ने चने के पैसे खोमचे वाले की ओर बढ़ाते हुए कहा तो अजनवी मित्र ने पैसे नही लिए……..

ये क्या बात हुई भैया , कल मिल जाएँगे , एसी क्या जल्दी है….

रवी उसकी मेहमान नवाज़ी पर मुस्कुरा दिया , फिर कुछ सोच कर गोपाल मास्टर जी के लड़के विनोद को फ़ोन मिला दिया , एक दो बार के बाद उसने फ़ोन उठा लिया……

भाई विनोद मैं यहाँ दिल्ली आया हुआ हूँ रेस में हिस्सा लेने , पच्चीस तारीख़ को रेस है , तू आएगा ना देखने….भाई आइयो ज़रूर , मुझे अच्छा लगेगा । एक तस्सली हुई , चलो कोई तो होगा जो उसकी हिम्मत बढ़ाने आएगा । भानसिंह की दुकान पर फ़ोन कर दिया कि माँ को ख़बर देदे मैं ठीक हूँ । कुछ देर इंडिया गेट पर आराम कर , जवान ज्योति को निहारता हुआ वापस स्टेशन आ गया ,  मन में विचार आया कि विनोद ने उससे एक बार भी ये नही पूछा कि वो कहाँ रहेगा लेकिन फिर उस बात को झटक कर निकाल दिया , जानता था कि विनोद बड़ा आदमी है भला उस जैसे को वह अपने घर क्यूँ बुलाएगा ।

अगले दिन सुबह उठ स्टेडियम अपना नाम दर्ज़ कराने चला गया , पच्चीस तारीख़ में पूरा एक दिन बाकी था , वो आराम नही कर सकता था उसे अपनी साईकिल की मरम्मत करनी थी । आज उसे वो साईकिल , सिर्फ़ साईकिल नही लग रही थी , उसे तो वो अपने ख़्वाबों की वो पतंग लग रही थी जो उसे आसमान में बादलों के पार ले जाएगी जिन बादलों के पार उसकी बनाई न जाने कितनी पतंगें हज़ारों बार हो आईं थीं । वो सोच रहा था कि कितना साथ निभाया है इस साईकिल ने उसका , उसे ये साईकिल स्कूल के हैडमास्टर जी ने दिलवाई थी । उससे पहले तो उसे अपना हाथ जगन्नाथ का मुहावरा ही पता था लेकिन साईकिल मिलने के बाद पता चला कि चलती का नाम गाड़ी होता है । आज भी उसी साईकिल पर वो कुछ ख़्वाब ले कर चला था । रेस सुबह आठ बजे इंडियागेट के पास शुरू होनी थी । सात बजे तक वो इंडिया गेट पर खड़ा था , वो देख रहा था कि सभी की साईकिलें देखने में छोटी और नई तरह की थीं । मन में एक पल को कुछ खटका लेकिन फिर अपनी साईकिल की ओर देखकर मुस्कुरा दिया…..भीड़ जमा हो गई थी , लेकिन उसके लिए वो सभी अजनवी थे , मन घबरा रहा था , पता नही क्या होगा……… एक लाईन से सभी प्रतिभागी खड़े हो गए और हरी झंडी दिखाते ही सब की साईकिलें दौड़ने लगीं……रवी की साईकिल कुछ चली और फिर रूक गई…..उसका दिल जैसे रूक गया…..पूरी ताकत से पैडल घुमाया तो घर्र की आवाज़ के साथ साईकिल एक झटके से चल पड़ी……….पर वो पीछे छूट गया था , बहुत पीछे…..उसके सपने कभी पूरे नही हो पाएँगे ,  आँखों में पानी भर आया और फिर पूरी ताकत से पैडल घूमाने लगा , उसे ये होश नही था कि उसके आगे या पीछे कितने लोग थे , बस वो बेतहाशा पैडल घुमा रहा था , सारे तन की ताकत उसके हाथों में समा गई थी , तभी एक शोर हुआ और उसने देखा कि एक प्रतिभागी सीमा तक पहुँच चुका था , दूसरा पहुँच रहा था……वो रूका नही , मुड़कर देखा भी नही , शोर बढ़ता जा रहा था । उसके हाथ भर गए थे और हथेलियाँ फड़क रही थीं , रवी अंतिम चरण पर पहुँच , निढाल हो अपनी साईकिल पर गिर गया , वो फूट फूट कर रो रहा था । अगले दिन अख़बार में तीन विजेताओं में रवी की फ़ोटो प्रधानमंत्री जी के साथ छपी थी ।